दशहरे का त्यौहार देश के प्रमुख त्योहारों में से एक है । यह पूरे देश में मनाया जाता है और वर्ष में दो बार आता है। एक तो सितंबर अक्टूबर यानी हिंदी महीनों के हिसाब से क्वार (अश्विन) के महीने में और दूसरा मार्च-अप्रैल यानी चैत्र के महीने में होता है । दशहरा का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाई जाती हैं ।
क्वार (अश्विन ) मास का दसहरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है । यह रामचंद्र जी की रावण पर विजय के उपलक्ष में मनाया जाता है । देश के भिन्न-भिन्न भागों से यह त्यौहार अनेकों प्रकार से मनाया जाता है । चैत्र और आश्विन में दसहरा से पहले 9 दिन तब दुर्गा की पूजा होती है । जो नवरात्रि कहलाती है । कहते हैं अश्विन मास में लंका के राजा रावण को मारने से पहले श्री रामचंद्र जी ने युद्ध में सफलता प्राप्त करने के लिए दुर्गा जी के काली स्वरूप की आराधना की । फलस्वरूप अंत में युद्ध में श्री राम को सफलता मिली । उसी समय से नवरात्रि पूजा का चलन आरंभ हो गया ।
वैसे तो देखने में रावण अन्य मनुष्यों की भांति ही था । लेकिन तस्वीरों में हम देखते हैं कि उसके दस सिर बनाए जाते हैं । जो उसके उन दस अवगुणों के प्रतीक हैं, जिनके वशीभूत होकर वह अनेक प्रकार के अन्याय और कुकर्म किया करता था । कहते हैं संसार में चाहे सब कुछ नष्ट हो जाए पर बुद्धि भ्रष्ट नहीं होनी चाहिए । बुद्धि होने पर निर्धन मनुष्य भी अपना सब कुछ खोया हुआ फिर से प्राप्त कर सकता है । निर्बुद्धि , अथवा मूर्ख मनुष्य सिर पर हाथ रखकर रोएगा लेकिन जो दुर्बुद्धि होगा वह अपनी सारी शक्ति बुरे कामों में ही लगाएगा । रावण के 10 सिर होने के विषय में एक कथा प्रचलित है । यह पुलस्त ऋषि का नाती और विश्रवा मुनि का पुत्र था । विश्रवा मुनि की तीन पत्नियां थी और तीनों ही राक्षसी थीं । इसलिए उनके बेटों के संस्कार भी राक्षसी ही थे । इस समय लंका में कुबेर राज्य करता था । एक बार कुबेर विश्रवा मुनि से मिलने के लिए आया । रावण उसके ठाठ-बाट देख कर ईर्ष्या के कारण जल-भुन गया । वह सोचने और चाहने लगा कि कुबेर का राज्य मुझे मिल जाए ।
कुंभकरण और विभीषण भी रावण के भाई थे । रावण , कुंभकरण और विभीषण तीनों भाइयों ने हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की । रावण ने अनेक हवन किए । उसे वरदान था कि उसका सिर कटने पर उसके स्थान पर नया सिर निकल आएगा तो उसने एक के बाद एक अपने दस सिर बलिदान कर दिए । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा । रावण ने अपने 10 सिर बलिदान कर दिए थे , इसलिए एक तो उसने मांगा कि मैंने अपने 10 सिर काट कर हवन की अग्नि को अर्पण किए थे । मैं चाहता हूं मुझे मेरे दसों सिर फिर से वापस मिल जाएं । इसके अतिरिक्त मैं गंधर्व ,देवता, यक्ष या राक्षस किसी के भी मारे न मरूं । ब्रह्मा जी ने कहा जो कुछ भी तुमने मांगा सब कुछ तुम्हें मिलेगा और किसी के हाथ से तुम नहीं मारे जाओगे । लेकिन तुम्हारी मौत मनुष्य के हाथ से ही होगी तुम अमर नहीं हो ।
विभीषण ने वर मांगा कि हर हालत में मैं अपने धर्म का पालन करता रहूं और सदा भगवान की भक्ति में लगा रहा हूं । उसको भी अपने वरदान की प्राप्ति हुई ।
कुंभकरण ने मांगा की मैं सदा सोता रहूं और मेरे अंदर तमोगुण भरा रहे । ब्रह्मा जी ने उसको भी वरदान दे दिया और अंतर्ध्यान हो गए ।
इसके बाद रावण ने लंका के राजा कुबेर पर चढ़ाई कर दी खूब लड़ाई हुई । कुबेर हार गया, और गंधमादम पर्वत पर चला गया । ब्रह्मा जी से प्राप्त वरदान के फल स्वरुप रावण के दस सिर पैदा हो गये । इस कहानी को देखते हुए तो ऐसा लगता है कि रावण के सचमुच ही 10 सिर थे लेकिन यह भी जरूर सच है उसके दस सिर उसके दस अवगुणों के ही प्रतीक थे ।
रावण बड़ा भारी पंडित था , वेद शास्त्रों का ज्ञाता और महान वीर था । इसका एक उदाहरण है जिस समय राम लंका विजय के लिए जा रहे थे , तब उन्होंने महादेव शिव और काली देवी की पूजा की थी और पूजा करवाने के लिए रावण को ही बुलाया था । युद्ध भी रावण से ही होना था । उसने आकर पूजन करवाया और युद्ध में राम विजयी हुए । एक उदाहरण और भी है जिससे उसके ज्ञानीपंडित होने का प्रमाण मिलता है । उसके शत्रु होते हुए भी राम उसके ज्ञान और वीरता को मानते थे । उसके सभी दुखी और त्रस्त थे , लेकिन हर बुराई का अंत अवश्य होता है और उसका अंत हुआ अयोध्या के राजा रामचंद्र जी ने रावण को उसके कुटुम्ब सहित युद्ध में मार कर विजय प्राप्त की थी , इसलिए इस दशहरे का नाम विजयादशमी पड़ा ।
दशहरे के दिन हथियारों की पूजा होती है । यह पूजा विजय प्राप्त करने के बाद रामचंद्र जी ने भी की थी । जिन हथियारों के कारण विजय प्राप्त हुई , उनका उन्होंने आभार माना और पूजा की । वही चलन अभी तक चला रहा है ।
राजपूत लोग लड़ाकू जाति के माने जाते हैं । पुराने जमाने में वे सदा देश के लिए युद्ध में सन्लग्न रहते थे । अब यह लोग अपने हथियार ,तलवार ,बंदूक ,रिवाल्वर आदि की सफाई महीनों पहले से करते हैं दशहरे के दिन उनको कलावा बांधकर चौकी पर रखते हैं । चौकी के सामने चौक लगाते हैं , दीया जलाकर चौक पर रखते हैं और फिर रोली, चावल , धूप , दीप ,फल , फूल से उनकी पूजा करते हैं । कुछ मिठाई भी चढ़ाकर प्रसाद के रूप में वितरित करते हैं । वे लोग घोड़ों और वाहनों की भी पूजा करते हैं ।
राज परिवारों में दशहरे का पूजा का बड़ा महत्व है और वे लोग इसे बड़े गाजे-बाजे और जोशोखरोश से मनाते हैं । दशहरे के दिन शाम को रावण , मेघनाथ और कुंभकरण के विशालकाय पुतले बनाकर रामलीला के स्थान पर खड़े किए जाते हैं । यह पुतले बांस के बने होते हैं जिन पर ऊपर से कागज चढ़ा होता है और अंदर अनेकों पटाखे लगे रहते हैं । रावण का पुतला 10 सिर का होता है । श्रीराम पहले कुंभकरण फिर मेघनाथ पर अग्निबाण चलाते हैं बाद में रावण पर । बाण लगते ही उनके पटाखे जोर-जोर से फटने लगते हैं । चारों ओर उनका धुंआ जरा सी देर में तीनों पुतले जलकर राख के ढेर हो जाते हैं । इस प्रकार बुराई के अंत में अच्छाई की स्थापना की जाती है ।
समय व्यतीत होता गया । घोड़ों का स्थान पहले तो बग्घियों ने और बाद में मोटरों ने ले लिया और सवारियों की पूजा करने का चलन है इसलिए लोग अपनी अपनी मोटरों, स्कूटरों और साइकिलों की पूजा करते है और इसके अतिरिक्त अब जो जिसकी रोजी-रोटी, का साधन होता है । उसी की पुजा करते हैं जैसे नौकरी पेशा लोग अपने कलम पेंसिल को कलावा बांधकर पूजा की चौकी पर रखते और पूजते हैं । मशीनों का काम करने वाले अपनी मशीनों की और फैक्टरियों वाले अपनी फैक्टरी की पूजा करते हैं ।
दशहरे का त्यौहार 10 दिन पहले से आरंभ हो जाता है । क्वार (आश्विन ) के महीने में अमावस्या के बाद ही प्रथमा से स्थान स्थान पर रामलीला होनी शुरू हो जाती है । राम जन्म से लेकर राजगद्दी तक की सारी लीलाएं करते हैं । खूब स्वांग बनाते हैं । पहले तो झांकियां जुलूस में निकालते हैं । सभी कोशिश करते हैं कि उनकी झांकी सबसे अच्छी रहे और फिर रामलीला मैदान में जाकर ड्रामे की भांति रामलीला करते हैं । दशहरे के दिन रावण का वध और राम की विजय , शरद पूर्णिमा के दिन भरत मिलाप और दीपावली के दिन राम को राजगद्दी प्राप्त होने के उपलक्ष्य में त्योहार मनाए जाते हैं ।
बंगाल में दशहरे से पहले दुर्गा देवी की नवरात्रि मनाई जाती है । कुल्लू और मैसूर का दशहरा मशहूर है । कुल्लू घाटी में पहाड़ी लोग सामूहिक रूप से दशहरा मनाते हैं । वे सब रंग बिरंगे सुंदर कपड़े पहन कर खूब नाचते और गाते हैं । अपने सभी देवताओं को जुलूस में निकालते हैं । गाते बजाते और नाचते हुए पूरे शहर का चक्कर लगाते हैं । उन लोगों के यहां बकरे का बलिदान करने का भी चलन है ।
मैसूर का दशहरा भी बहुत जोरदार होता है वहां सब पूजा तो होती ही है, लेकिन सबसे विशिष्ट बात यह है कि वहां जो जुलूस निकलता है , उसमें अनेकों हाथी भी होते हैं । हाथियों को दशहरे के लिए पहले से ही खूब सजाया जाता है । उनके मुंह , सूंड़ और कानों पर रंगों से सुंदर चित्रकारी की जाती है । बहुत सुंदर चमकदार जरी के काम की रंग बिरंगी झूले उन पर डाली जाती है । हाथियों के पैरों में घुंघरू बांध देते हैं जो चलते समय बजते जाते हैं और उनके गले में लंबी-लंबी पीतल की चमकती हुई जंजीरे डालते हैं , जो देखने में बड़ी सुंदर लगती है । शहर की सड़कें झंडियों और चमकदार रंग-बिरंगे बल्बों से सजाई जाती है । ऐसे सजे हुए हाथियों के साथ लम्बा जुलूस निकाला जाता है । इसमेंं सजे हुए घोड़े आदि भी होते हैं । सेना के पैदल सिपाही भी होते हैं और साथ ही खूब लम्बा बैंड बाजा होता है । इन सब को देखने के लिए लोग बाहर से भी आते हैं ।
दशहरे के मौके पर जो रामलीला रामगढ़ में मनाई जाती है, उसका कोई मुकाबला नहीं है । लगभग 10 किलोमीटर के दायरे में इस रामलीला का आयोजन होता है । रामचंद्र जी के समय के सभी स्थान उसी तरह के बनाए जाते हैं । अयोध्या (जहां राम जी का जन्म हुआ था), जनकपुरी (जहां सीता जी के माता पिता रहते थे ) ,सरयू नदी (जो अयोध्या में थी ) पंचवटी (जहां वनवास के दिनों में रामचंद्र जी रहे थे), रावण की सोने की लंका और उसका सोने का महल तथा युद्ध भूमि (जहां राम और रावण का युद्ध हुआ था) आदि सभी कुछ बिल्कुल वैसा ही बनाते हैं जैसा रामायण में वर्णित है ।दर्शक गण जहां जहां रामलीला के दृश्य होते हैं वहीं जा-जाकर देखते हैं । यह रामलीला 80 दिन में पूरी होती है ।
रावण बहुत भारी विद्वान , ज्ञानी और पंडित था । इसलिए कई स्थानों में रावण की पूजा होती है । जौ के पौधे तोड़कर रावण पर चढ़ाते हैं और अपने कानों में भी खोंस लेते हैं । बहने अपने भाइयों के सिर पर यह जौ के पौधे रखती हैं । दशहरे के दिन व्यापारी लोग नए बही-खाता शुरू करते हैं । उन पर पहले हल्दी से गणेश जी की तस्वीर बनाते हैं , इसके बाद नया हिसाब लिखते हैं । जौ के पौधे बही-खातों में भी रखने का शगुन मानते हैं ।
हरियाणा में भी दशहरे पर पूजा की जाती है । वहां भी रावण मेघनाथ और कुंभकरण के पुतले जलाए जाते हैं । कई दिन पहले से बैलों को सजाकर और उनके शरीरों पर चित्रकारी करके दहसरे के दिन के लिए तैयार करते हैं । फिर उन्हें बैलगाड़ियों में जोतकर उनकी दौड़ करवाते हैं । कहते हैं कि दशहरे के दिन ही पांडवों ने कौरवों पर विजय प्राप्त किया था और इसी दिन इंद्र ने वृतासुर नामक राक्षस को मारा था । वृतासुर बड़ा भयंकर राक्षस था और सभी को अकारण कष्ट देता था । उसे दधीचि ऋषि की हड्डियों का वज्र बनाकर मारा गया था ।
उपरोक्त वर्णनसे स्पष्ट है की दशहरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है ।और इसे मनाने से हमारी बुराई पर अच्छाई की विजय पाने की मानसिक भावना पुष्ट होती है । और हमें अच्छाई और सत्य के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है ।
व्रत कथा
एक बार पार्वती जी ने दशहरे का त्यौहार के फल के बारे में शिव जी से प्रश्न किया तब शिवजी ने विजय काल की चर्चा करते हुए बताया– “शत्रु पर विजय पाने के लिए राजा को इसी समय प्रस्थान करना चाहिए । इस दिन नक्षत्र का योग और भी शुभ माना गया है । महाराज रामचंद्र जी ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई की थी । शत्रु से युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इसी काल में राजाओं को सीमा का उल्लंघन करना चाहिए । इसी काल में शमी वृक्ष ने अर्जुन का धनुष धारण किया था तथा रामचंद्र जी से प्रिय वाणी कही थी ।”
पार्वती जी ने पूछा–” शमी वृक्ष ने अर्जुन का धनुष कब धारण किया था रामचंद्र जी से कैसी प्रिय वाणी कही थी ?” शिवजी ने जवाब दिया ,”दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित करके 12 वर्षों के वनवास के साथ 13 वर्ष में अज्ञातवास शर्त रखी थी । तेरहवें वर्ष यदि उनका पता लग जाता तो उन्हें पुनः 12 वर्ष का वनवास भोगना पड़ता । इसी अज्ञातवास में अर्जुन ने अपना धनुष शमी वृक्ष पर रखा था तथा स्वयं वृहन्लला के भेष में राजा विराट के पास नौकरी कर ली । जब गौ रक्षा के लिए विराट के पुत्र ने अर्जुन को अपने साथ लिया , तब अर्जुन ने शमी वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी ।
विजयादशमी के दिन रामचंद्र जी द्वारा लंका पर चढ़ाई के लिए प्रस्थान करते समय शमी वृक्ष ने रामचंद्र जी की विजय का उद्घोष किया था , इसलिए विजय काल में शमी पूजन किया जाता है । एक बार श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को बताया –“राजन विजयादशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासों और हाथी घोड़ो का श्रृंगार करना चाहिए। वाद्य यंत्रों सहित मंगलाचार करना चाहिए । पुरोहित को साथ लेकर पूर्व दिशा में सीमा का उल्लंघन करना चाहिए । वहां वास्तु अष्टदिग्पाल तथा पार्थदेवता की वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके पूजा करनी चाहिए । शत्रु की मूर्ति बनाकर उसकी छाती में बाण मारना चाहिए । ब्राह्मणों की पूजा करके हाथी घोड़ो आदि के अस्त्र शस्त्रों का निरीक्षण करना चाहिए । तब कहीं अपने महल में लौटना चाहिए । जो राजा प्रतिवर्ष इस प्रकार विजया करता है उसकी शत्रु पर सदैव विजय होती है ।”
दशहरा बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है और इससे हमारी बुराई पर अच्छाई की विजय पाने की मानसिकता मानसिक भावना और सत्य के पथ पर चलने की प्रेरणा मिलती है.