देवों के देव महादेव भगवान शिव जी वरदानी और क्रोधी दोनों हैं । जब खुश होते हैं तो दुष्टों और पापियों को भी वरदान दे देते हैं और जब नाराज होते हैं तो अपने भक्तों को भी श्राप दे देते हैं । अब मैं आपको शिवजी के क्रोध के संबंध में एक ऐसी कथा बताने जा रहा हूं ,जो ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि भृगु पर , शिवजी के क्रोध से सम्बन्धित है ।
भृगु ने शिव जी का आलिंगन अस्वीकार कर दिया तो शिव जी , महर्षि भृगु के ऊपर क्रोधित हो गए थे । महर्षि भृगु ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे । उनका विवाह दक्ष की पुत्री ख्याति के के साथ हुआ था । महर्षि भृगु सप्तर्षि मंडल के एक ऋषि हैं । सावन व भाद्रपद में यह भगवान सूर्य के रथ पर सवार रहते हैं । एक बार की बात है कि सरस्वती नदी के तट पर सभी ऋषियों और मुनियों ने एक जगह एकत्रित होकर , इस विषय पर चर्चा कर रहे थे कि ब्रह्मा जी , शिव जी और श्री विष्णु जी में सबसे बड़े और श्रेष्ठ कौन हैं ? इसका कोई निष्कर्ष न निकलता देख ऋषि-मुनियों ने त्रिदेव (ब्रह्मा- विष्णु -महेश) की परीक्षा लेने के लिए निश्चय किया । और ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि भृगु को इस कार्य के लिए नियुक्त किया ।
महर्षि भृगु सबसे पहले परीक्षा लेने के लिए अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए । भृगु मुनि जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी को न तो प्रणाम किया और न ही उनकी स्तुति की । यह देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हो गए । क्रोध की अधिकता से उनका मुख लाल हो गया और आंखों में अंगारे दहकने लगे । लेकिन फिर यह सोचकर कि भृगु तो उनके पुत्र हैं । ब्रह्मा जी ने अपने हृदय में उठे हुए क्रोध के आवेग को बुद्धि- विवेक में दबा लिया ।
अब वहां से भृगु मुनि कैलाश पर्वत पर शिव जी के पास गए । देवाधिदेव भगवान महादेव ने देखा कि भृगु मुनिजी आ रहे हैं तो शिव जी प्रसन्न होकर अपने आसन से उठे और उनका आलिंगन करने के लिए अपने भुजाएं फैला दिए । किंतु शिवजी की परीक्षा लेने के लिए उन्होंने शि्वजी का आलिंगन अस्वीकार कर दिया । और बोले महादेव आप सदा वेदों और धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करते हैं । दुष्ट और पापियों को वरदान देते हैं । उनसे सृष्टि पर भयंकर संकट आ जाता है । इसलिए मैं आपका आलिंगन कभी स्वीकार नहीं करूंगा । उनकी यह बात सुनकर भगवान शिव क्रोध से तिलमिला उठे । उन्होंने जैसे ही त्रिशूल उठाकर उन्हें मारना चाहा , वैसे ही भगवती सती ने बहुत अनुनय- विनय करके किसी प्रकार से शिव जी का क्रोध शांत करायीं ।
उसके बाद भृगु मुनि जी बैकुंठ धाम में श्री विष्णु जी के पास गए । उस समय भगवान श्री विष्णु देवी लक्ष्मी की गोद में सिर रख कर लेटे थे । भृगु मुनि ने जाते ही विष्णु जी के वक्ष (सीना) पर एक तेज लात मारी । भक्तवत्सल भगवान विष्णु जल्दी से अपने आसन से खड़े हो गए । और भृगु मुनि को प्रणाम करके भृगु मुनि का चरण सहलाते हुए बोले, ‘हे भगवन ! आपके पैर पर चोट तो नहीं लगी ? कृपया इस आसन पर विश्राम कीजिए । हे भगवन ! आपके शुभागमन का मुझे ज्ञान नहीं था । इसलिए मैं आपका स्वागत नहीं कर सका । आपके चरणों का स्पर्श तीर्थों को पवित्र करने वाला है । आपके चरणों के स्पर्श से आज मैं धन्य हो गया ।’ भगवान विष्णु का यह प्रेम- व्यवहार देखकर महर्षि भृगु के आंखों में आंसू बहने लगे ।
इसके बाद भृगु मुनि ऋषि- मुनियों के पास लौट आए । भृगु मुनि ने आकर ब्रह्मा जी, शिव जी और विष्णु जी के यहां के सभी अनुभव विस्तार से बताएं । उनके अनुभव को सुनकर सभी ऋषि -मुनि बड़े हैरान हो गए । और ऋषि- मुनियों के सारे संदेह दूर हो गए । तभी से ऋषि- मुनि भगवान विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर पूजा- अर्चना करने लगे । वास्तव में ऋषि मुनियों ने अपने लिए नहीं , बल्कि मनुष्यों के संदेहों को मिटाने के लिए ही ऐसी कहानी की रचना की थी । और त्रिदेवों की परीक्षा ली थी ।