बलिया एक तपोस्थली – परिचय (भाग -१)

बलिया जिला , उत्तर प्रदेश का पूर्वी जिला है । जिसका मुख्यालय बलिया शहर है । यह आजमगढ़ मंडल के अंतर्गत आता है । बलिया का निकटतम हवाई अड्डा पटना और वाराणसी है । पटना से 100 किलोमीटर और वाराणसी से 40 किलोमीटर की दूरी पर बलिया है । ट्रेन द्वारा बलिया जाने के लिए बलिया , बेल्थरा रोड , रसड़ा , और सुरमैन पुर रेलवे स्टेशन शामिल है । दादरी एक्सप्रेस , चौरी – चौरा एवं गोरखनाथ एक्सप्रेस से जा सकते हैं । सड़क द्वारा बलिया शहर , वाराणसी , पटना , गोरखपुर जैसे बड़े शहरों से सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है । बलिया जिले की भाषा भोजपुरी है । यहां का प्रिय व्यंजन लिट्टी – चोखा है । बलिया को भोजपुरी में बलिंयां कहा जाता है ।

सबसे पहले बलिया 19 अगस्त 1942 में आजाद हुआ था । उस समय के कांग्रेसी नेता चित्तू पांडेय के नेतृत्व में बलिया में स्वतंत्र सरकार का गठन हुआ । बलिया एक प्राचीन शहर है । भारत के कई महान संत और साधु जैसे जमदग्नि , बाल्मीकि , भृगु , दुर्वासा आदि के आश्रम बलिया में थे । बलिया प्राचीन समय में कौशल साम्राज्य का एक भाग था । यह भी कुछ समय के लिए बौद्ध प्रभाव में आया था । पहले यह गाजीपुर का एक हिस्सा था , लेकिन बाद में यह जिला हो गया । यह राजा बालि की धरती मानी जाती है , उन्हीं के नाम पर इसका नाम बलिया पड़ा । इस शहर के पूर्वी सीमा में गंगा और सरयू नदी का संगम है । यह शहर वाराणसी से 155 किलोमीटर दूरी पर स्थित है । यहां चावल , जौ , मटर , ज्वार – बाजरा , दालें , तिलहन और गन्ना उगाया जाता है ।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में ददरी का प्रमुख पशु मेला प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर आरंभ होता है । ददरी में पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध पशु मेला लगता है । जिसमें मुख्यत: पशुओं का क्रय – विक्रय होता है । यह मेला एक ऐतिहासिकता मेला है ।

इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि चीनी यात्री फाह्यान ने इस मेले का , अपनी पुस्तक में जिक्र किया है । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने गुलाम भारत के दुर्दशा के संबंध में एक बहुत ही सुंदर लेख ( निबंध ) लिखा है । जिसको उन्होंने 1884 में पहली बार बलिया के इसी ददरी मेले में पेश किया था । जिसमें लेखक के द्वारा बताया गया है कि “भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ।” सरकारी दस्तावेजों में अंकित , देश में पशुओं का दूसरा सबसे बड़ा पशु मेला ददरी , अपने आप में अनोखा एवं अलबेला है । यह मेला कार्तिक पूर्णिमा ( अक्टूबर-नवंबर ) के अवसर पर गंगा नदी में पवित्र डुबकी लगाने से शुरू होता है । यह मेला महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि के सम्मान में सलाना आयोजित किया जाता है । गंगा के किनारे लगने वाला ऐतिहासिक ददरी मेला जिसको ‘नंदीग्राम ‘ भी कहते हैं , और उसके बाद मीना बाजार कार्तिक पूर्णिमा स्नान के एक महीना तक लगने वाला मेला , दो चरणों में आयोजित किया जाता है ।

पहला चरण कार्तिक पूर्णिमा की शुरुआत से 10 दिन पहले शुरू होता है । जिसमें व्यापारी पूरे भारत देश से अपने – अपने पशुओं की अच्छी नस्लों के पशु क्रय – विक्रय के लिए लाते हैं । कार्तिक पूर्णिमा के बाद विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । और अगले पखवाड़े के दौरान यहां विभिन्न वस्तुओं की बड़ी संख्या में अस्थिर दुकानें लगती हैं ।

कार्तिक पूर्णिमा के दिन से लगने वाला ददरी मेला का मीना बाजार लगभग डेढ़ किलोमीटर की परिधि में लगता है । चेतक प्रतियोगिता और दंगल के साथ ही अखिल भारतीय कवि सम्मेलन , मुशायरा , लोकगीत , कव्वाली आदि कार्यक्रम करीब एक महीने तक चलता है । इस मेले के लिए स्पेशल ट्रेन व बसों का संचालन अतिरिक्त रूप में किया जाता हैददरी मेला के माध्यम से गंगा नदी की धारा को अविरल बनाए रखने के लिए ऋषि-मुनियों ने प्रयास किया है । महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जल धारा को अयोध्या से अपने आश्रम पर दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया ।

Rajendra Yadav

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One thought on “बलिया एक तपोस्थली – परिचय (भाग -१)

  1. भाग २ -बलिया एक तपोस्थली – महर्षि भृगु की मुक्ति, दर्दर मुनि, ददरी का प्रमुख पशु मेला, मंगल पांडे, June 16, 2020 at 2:03 pm

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