माँ तरकुलहा देवी मंदिर का चमत्कार

आज मैं आप सभी पाठक बंधुओं को एक ऐसे देवी मां के मंदिर की महिमा बताने जा रहा हूँ , जो यह देश का इकलौता मंदिर है , जहाँ पर प्रसाद के रूप में मटन दिया जाता है । इस मंदिर का धार्मिक ही नहीं , ऐतिहासिक महत्व भी है । माँ तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 25 किलोमीटर की दूरी पर चौरी – चौरा के के पास स्थित है । यहाँ जाने के लिए सड़क मार्ग , रेल मार्ग , हवाई मार्ग तीनों साधन मौजूद है । मंदिर जाने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन चौरी – चौरा, टैक्सी – बस स्टैंड चौरी – चौरा , एयरपोर्ट गोरखपुर में है ।

देवी माँ का जहाँ मंदिर बना है , इस इलाके में पहले बहुत बड़ा देवीपुर का जंगल था । यहाँ जंगल में डुमरी के रियासत के बाबू बंधू सिंह रहा करते थे । जंगल के किनारे गोर्रा नदी बहती थी , जो आजकल नाले के रूप में बदल गई है क्रांतिकारी बंधु सिंह अंग्रेजोंं के खिलाफ थे । बंधु सिंह नदी के तट पर तरकुल के पेड़ के नीचे पिंडियाँ स्थापित करके देवी माँ की उपासना किया करते थे ।

माँ तरकुलहा देवी बाबू बंधू सिंह की इष्ट देवी थी । बाबू बंधू सिंह अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला लड़ाई में निपुण थे । जब भी कोई अंग्रेज उस जंगल से होकर गुजरता था तो बंधु सिंह उस दुश्मन को मार कर उसका सिर , धड़ से अलग करके देवी माँ के चरणों में अर्पित कर देते थे । उधर अंग्रेज सैनिक जब जंगल से वापस नहीं जाते थे , तो अंग्रेजों ने बंधु सिंह को पकड़ने का बहुत प्रयास किया । परंतु हर बार देवी माँ की कृपा से बाबू बंधू सिंह पकड़ में नहीं आते थे बहुत प्रयास के बाद मुखबिरी के हिसाब से अंग्रेजों ने बाबू बंधू सिंह को गिरफ्तार करके अदालत में पेश किया । अदालत में बाबू बंधू सिंह को फांसी की सजा सुनाई गयी । 12 अगस्त 1857 को क्रांतिकारी बाबू बंधू सिंह को गोरखपुर के अली नगर चौराहा पर एक पेड़ पर सार्वजनिक रूप से फाँसी पर लटकाया गया । बताया जाता है कि अंग्रेजो ने बाबू बंधू सिंह को 6 बार फांसी पर लटकाया , लेकिन वे सफल नहीं हो सके । इसके बाद बाबू बंधू सिंह ने माँ तरकुलहा देवी का ध्यान करके माँ से मन्नत मांगी कि हे माँ अब तुम मेरा साथ छोड़ दो और अब मुझे जाने दो (मुक्ति दो ) । तब माँ शक्ति स्वरूपा देवी ने बंधु सिंह की प्रार्थना सुन ली और सातवीं बार में अंग्रेज , उनको फाँसी पर चढ़ाने में सफल हो गए ।

अमर शहीद बाबू बंधू सिंह को सम्मानित करने के लिए यहां पर एक स्मारक स्थापित किया गया है । बाबू बंधू सिंह ने अंग्रेजों का सिर चढ़ाकर , जो बलि देने की परंपरा की शुरुआत किया था , वही परंपरा आज भी चालू है । यहां पर मनुष्य के सिर के बदले , बकरे की बलि चढ़ाई जाती है । और बलि देने के बाद बकरे के मांस को , मिट्टी के बर्तन में पकाकर , प्रसाद के रूप में बाटी ( लिट्टी) के साथ में मटन को बांटा जाता है ।

अमर शहीद बंधु सिंह का जन्म 1 मई सन् 1833 को डुमरी रियासत के बाबू शिवप्रसाद सिंह के जमींदार परिवार में हुआ था । बंधु सिंह पांच भाई थे । जब बंधु सिंह की फाँसी हुई , तो एक तरफ उनकी फाँसी हुई और दूसरी तरफ उसी वक्त वहां से 25 किलोमीटर दूर देवीपुर के जंगल में उनके द्वारा स्थापित माँ के पिंडी के बगल में खड़ा तरकुल का पेड़ का सिरा टूट कर जमीन पर गिर गया और इस टूटे हुए तरकुल के पेड़ से रक्त की धारा निकल पड़ीं

यहीं से इस देवी का नाम माँ तरकुलहा देवी के नाम से प्रसिद्ध हो गया । यहाँ मंदिर में भक्तों द्वारा सच्चे मन से मांगी गई हर मुराद पूरी होती है । यहाँ पर वैसे तो श्रद्धालुओं का हमेशा आना जाना लगा रहता है , मगर चैत्र नवरात्रि में एक महीने तक मेला लगता है

यह कहानी धार्मिक आस्था के साथ – साथ 1857 की क्रान्ती के साथ भी जुड़ी है ।

Rajendra Yadav

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